अर्थ : तुलसीदासजी कहते
हैं कि हे मनुष्य ,यदि तुम भीतर और
बाहर दोनों ओर उजाला चाहते हो तो मुखरूपी द्वार की जीभरुपी देहलीज़ पर राम-नामरूपी
मणिदीप को रखो |
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- नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु | जो सिमरत भयो भाँग ते तुलसी तुलसीदास ||
अर्थ : राम का नाम
कल्पतरु (मनचाहा पदार्थ देनेवाला )और कल्याण का निवास (मुक्ति का घर ) है,जिसको स्मरण करने से भाँग सा (निकृष्ट)
तुलसीदास भी तुलसी के समान पवित्र हो गया |
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- तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर | सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ||
अर्थ : गोस्वामीजी कहते
हैं कि सुंदर वेष देखकर न केवल मूर्ख अपितु चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं |सुंदर मोर को ही देख लो उसका वचन तो अमृत के
समान है लेकिन आहार साँप का है |
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- सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु | बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु ||
अर्थ : शूरवीर तो युद्ध
में शूरवीरता का कार्य करते हैं ,कहकर अपने को
नहीं जनाते |शत्रु को युद्ध
में उपस्थित पा कर कायर ही अपने प्रताप की डींग मारा करते हैं |
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- सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि | सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि ||
अर्थ : स्वाभाविक ही हित
चाहने वाले गुरु और स्वामी की सीख को जो सिर चढ़ाकर नहीं मानता ,वह हृदय में खूब पछताता है और उसके हित की हानि
अवश्य होती है |
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- मुखिया मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक | पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक ||
अर्थ : तुलसीदास जी कहते
हैं कि मुखिया मुख के समान होना चाहिए जो खाने-पीने को तो अकेला है, लेकिन विवेकपूर्वक सब अंगों का पालन-पोषण करता
है |
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- सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस | राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ||
अर्थ : गोस्वामीजी कहते हैं कि मंत्री, वैद्य और गुरु —ये तीन यदि भय या लाभ की आशा से (हित की बात न कहकर ) प्रिय
बोलते हैं तो (क्रमशः ) राज्य,शरीर एवं धर्म –
इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है |
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- तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहुँ ओर | बसीकरन इक मंत्र है परिहरू बचन कठोर ।।
अर्थ : तुलसीदासजी कहते
हैं कि मीठे वचन सब ओर सुख फैलाते हैं |किसी को भी वश में करने का ये एक
मन्त्र होते हैं इसलिए मानव को चाहिए कि कठोर वचन छोडकर मीठा बोलने का प्रयास करे |
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- सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि | ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकति हानि ||
अर्थ : जो मनुष्य अपने
अहित का अनुमान करके शरण में आये हुए का त्याग कर देते हैं वे क्षुद्र और पापमय
होते हैं |दरअसल ,उनका तो दर्शन भी उचित नहीं होता |
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- दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान | तुलसी दया न छांड़िए ,जब लग घट में प्राण ||
अर्थ: गोस्वामी
तुलसीदासजी कहते हैं कि मनुष्य को दया कभी नहीं छोड़नी चाहिए क्योंकि दया ही धर्म
का मूल है और इसके विपरीत अहंकार समस्त पापों की जड़ होता है|
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- दोहा :- “दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान, तुलसी दया न छोडिये जब तक घट में प्राण.
अर्थ :- तुलसीदास जी ने कहा की धर्म दया भावना से उत्पन्न होती और अभिमान तो केवल पाप को ही जन्म देता हैं, मनुष्य के शरीर में जब तक प्राण हैं तब तक दया भावना कभी नहीं छोड़नी चाहिए.
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- दोहा :- “सरनागत कहूँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि, ते नर पावॅर पापमय तिन्हहि बिलोकति हानि.”
अर्थ :- जो इन्सान अपने अहित का अनुमान करके शरण में आये हुए का
त्याग कर देते हैं वे क्षुद्र और पापमय होते हैं. दरअसल, उनको देखना भी उचित नहीं होता.
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- दोहा :- “तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहुँ और, बसीकरण इक मंत्र हैं परिहरु बचन कठोर.”
अर्थ :- तुलसीदासजी कहते हैं की मीठे वचन सब और सुख फैलाते हैं.
किसी को भी वश में करने का ये एक मंत्र होते हैं इसलिए मानव ने कठोर वचन छोड़कर
मीठे बोलने का प्रयास करे.
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- दोहा :- “सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस, राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास.”
अर्थ :- तुलसीदास जी कहते हैं की मंत्री वैद्य और गुरु, ये तीन यदि भय या लाभ की आशा से प्रिय बोलते हैं तो राज्य, शरीर एवं धर्म इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता हैं.
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- दोहा :- देहरीं द्वार तुलसी भीतर बाहेर हूँ जौं चाहसि उजिआर.”
अर्थ :- मनुष्य यदी तुम भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहते हो तो
मुखीरूपी द्वार की जिभरुपी देहलीज पर राम-नामरूपी मणिदीप को रखो.
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- दोहा :- “मुखिया मुखु सो चाहिये खान पान कहूँ एक, पालड़ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक.”
अर्थ :- मुखिया मुख के समान होना चाहिए जो खाने पिने को तो अकेला
हैं, लेकिन विवेकपूर्वक सब अंगो का पालन पोषण करता हैं.
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- दोहा :- “नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु. जो सिमरत भयो भाँग ते तुलसी तुलसीदास.”
अर्थ :- राम का नाम कल्पतरु और कल्याण का निवास हैं, जिसको स्मरण करने से भाँग सा तुलसीदास भी तुलसी के समान
पवित्र हो गया.
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- दोहा :- “सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानी, सो पछिताई अघाइ उर अवसि होई हित हानि.”
अर्थ :- स्वाभाविक ही हित चाहने वाले गुरु और स्वामी की सिख को जो
सिर चढ़ाकर नहीं मानता, वह हृदय में खूब पछताता है
और उसके हित की हानि अवश्य होती हैं.
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- दोहे :- “बिना तेज के पुरुष की अवशि अवज्ञा होय, आगि बुझे ज्यों राख की आप छुवै सब कोय.”
अर्थ :- तेजहीन व्यक्ति की बात को कोई भी व्यक्ति महत्व नहीं देता
है, उसकी आज्ञा का पालन कोई नहीं करता है. ठीक वैसे ही जैसे, जब राख की आग बुझ जाती हैं, तो उसे हर
कोई छुने लगता है.
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- दोहा :-“ तुलसी साथी विपत्ति के विद्या विनय विवेक, साहस सुकृति सुसत्यव्रत राम भरोसे एक.”
अर्थ :- तुलसीदासजी कहते हैं की मुश्किल वक्त में ये चीजें मनुष्य
का साथ देती है, ज्ञान, विनम्रता पूर्वक व्यवहार, विवेक, साहस, अच्छे कर्म, आपका सत्य और भगवान का नाम.
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- दोहा :- “सुर समर करनी करहीं कहि न जनावहिं आपु, विद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु.”
अर्थ :- शूरवीर तो युद्ध में शूरवीरता का कार्य करते हैं, कहकर अपने को नहीं जनाते. शत्रु को युद्ध में उपस्थित पा कर
कायर ही अपने प्रताप की डिंग मारा करते हैं.
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- दोहा :- “तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर, सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि.”
अर्थ :- तुलसीदास जी कहते हैं कि सुंदर वेष देखकर न केवल मुर्ख
अपितु चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते है. सुंदर मोर को ही देख लो उसका वचन तो अमृत
के समान हैं लेकिन आहार साप का हैं.
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