"लॉटरी" प्रेमचंद कहानी ~ Mansarovar Story Part-2

Lottery premchand stories mansarovar part 2 Hindi

ल्दी से मालदार हो जाने की हवस किसे नहीं होती उन दिनों जब लॉटरी के टिकट आयेतो मेरे दोस्तविक्रम के पिताचचाअम्माऔर भाई,सभी ने एक-एक टिकट खरीद लिया। कौन जानेकिसकी तकदीर जोर करे किसी के नाम आयेरुपया रहेगा तो घर में ही। मगर विक्रम को सब्र न हुआ। औरों के नाम रुपये आयेंगेफिर उसे कौन पूछता है बहुत होगादस-पाँच हजार उसे दे देंगे। इतने रुपयों में उसका क्या होगा उसकी जिन्दगी में बड़े-बड़े मंसूबे थे। पहले तो उसे सम्पूर्ण जगत की यात्रा करनी थीएक-एक कोने की। पीरू और ब्राजील और टिम्बकटू और होनोलूलूये सब उसके प्रोग्राम में थे। वह आँधी की तरह महीने-दो-महीने उड़कर लौट आनेवालों में न था।
वह एक-एक स्थान में कई-कई दिन ठहरकर वहाँ के रहन-सहनरीति-रिवाज आदि का अध्ययन करना और संसार-यात्रा का एक वृहद् ग्रंथ लिखना चाहता था। फिर उसे एक बहुत बड़ा पुस्तकालय बनवाना थाजिसमें दुनिया-भर की उत्तम रचनाएँ जमा की जायँ। पुस्तकालय के लिए वह दो लाख तक खर्च करने को तैयार थाबँगलाकार और फर्नीचर तो मामूली बातें थीं। पिता या चचा के नाम रुपये आयेतो पाँच हजार से ज्यादा का डौल नहींअम्माँ के नाम आयेतो बीस हजार मिल जायँगेलेकिन भाई साहब के नाम आ गयेतो उसके हाथ धोला भी न लगेगा। वह आत्माभिमानी था। घर वालों से खैरात या पुरस्कार के रूप में कुछ लेने की बात उसे अपमान-सी लगती थी। कहा, करता था भाईकिसी के सामने हाथ
फैलाने से तो किसी गङ्ढे में डूब मरना अच्छा है। जब आदमी अपने लिए संसार में कोई स्थान न निकाल सकेतो यहाँ से प्रस्थान कर जाय ? वह बहुत बेकरार था। घर में लॉटरी-टिकट के लिए उसे कौन रुपए
देगा और वह माँगेगा भी तो कैसे उसने बहुत सोच-विचार कर कहा, क्यों न हम-तुम साझे में एक टिकट ले लें ? तजवीज मुझे भी पसंद आयी। मैं उन दिनों स्कूल-मास्टर था। बीस रुपये मिलते थे। उसमें बड़ी मुश्किल से गुजर होती थी। दस रुपये का टिकट खरीदना मेरे लिए सुफेद हाथी खरीदना था। हाँएक महीना दूधघीजलपान और ऊपर के सारे खर्च तोड़कर पाँच रुपये की गुंजाइश निकल सकती थी। फिर भी जी डरता था। कहीं से कोई बलाई रकम मिल जायतो कुछ हिम्मत बढ़े।

विक्रम ने कहा, क़हो तो अपनी अँगूठी बेच डालूँ कह दूंगाउँगली से फिसल पड़ी।‘ अँगूठी दस रुपये से कम की न थी। उसमें पूरा टिकट आ सकता थाअगर कुछ खर्च किये बिना ही टिकट में आधा-साझा हुआ जाता हैतो क्या बुरा है सहसा विक्रम फिर बोला, लेकिन भईतुम्हें नकद देने पड़ेंगे। मैं पाँच रुपये नकद लिये बगैर साझा न करूँगा। अब मुझे औचित्य का ध्यान आ गया। बोला, नहीं दोस्तयह बुरी बात हैचोरी खुल जायेगीतो शर्मिन्दा होना पड़ेगा और तुम्हारे साथ मुझ पर भी डाँट पड़ेगी। आखिर यह तय हुआ कि पुरानी किताबें किसी सेकेन्ड हैंड किताबों की दूकान पर बेच डाली जायँ और उस रुपये से टिकट लिया जाय। किताबों
से ज्यादा बेजरूरत हमारे पास और कोई चीज न थी। हम दोनों साथ ही मैट्रिक पास हुए थे और यह देखकर कि जिन्होंने डिग्रियाँ लींअपनी आँखें फोड़ीं और घर के रुपये बरबाद कियेवह भी जूतियाँ चटका रहे थेहमने
वहीं हाल्ट कर दिया। मैं स्कूल-मास्टर हो गया और विक्रम मटरगश्ती करने लगा हमारी पुरानी पुस्तकें अब दीमकों के सिवा हमारे किसी काम की न थीं। हमसे जितना चाटते बना चाटाउनका सत्त निकाल लिया। अब चूहे चाटें या दीमकहमें परवाह न थी। आज हम दोनों ने उन्हें कूड़ेखाने से निकाला और झाड़-पोंछ कर एक बड़ा-सा गट्ठर बाँध। मास्टर थाकिसी बुकसेलर की दूकान पर किताब बेचते हुए झेंपता था। मुझे सभी पहचानते थे;इसलिए यह खिदमत विक्रम के सुपुर्द हुई और वह आधा घंटे में दस रुपये का एक नोट लिये उछलता-कूदता आ पहुँचा। मैंने उसे इतना प्रसन्न कभी न देखा था। किताबें चालीस रुपये से कम की न थींपर यह दस रुपये उस वक्त हमें जैसे पड़े हुए मिले। अब टिकट में आधा साझा होगा। दस लाख की रकम मिलेगी। पाँच लाख मेरे हिस्से में आयेंगेपाँच विक्रम के। हम अपने इसी में मगन थे।

मैंने संतोष का भाव दिखाकर कहा, पाँच लाख भी कुछ कम नहीं होते जी !’ विक्रम इतना संतोषी न था। बोला, पाँच लाख क्याहमारे लिए तो इस वक्त पाँच सौ भी बहुत है भाईमगर जिन्दगी का प्रोग्राम तो बदलना पड़ गया। मेरी यात्रावाली स्कीम तो टल नहीं सकती। हाँपुस्तकालय गायब हो गया। मैंने आपत्ति की आखिर यात्रा में तुम दो लाख से ज्यादा तो न खर्च करोगे ?’
'जी नहींउसका बजट है साढ़े तीन लाख का। सात वर्ष का प्रोग्रामहै। पचास हजार रुपये साल ही तो हुए ?'
'चार हजार महीना कहो। मैं समझता हूँदो हजार में तुम बड़े आराम से रह सकते हो।'
विक्रम ने गर्म होकर कहा, मैं शान से रहना चाहता हूँभिखारियों की तरह नहीं।
'दो हजार में भी तुम शान से रह सकते हो।'
'जब तक आप अपने हिस्से में से दो लाख मुझे न दे देंगेपुस्तकालय न बन सकेगा।'
'कोई जरूरी नहीं कि तुम्हारा पुस्तकालय शहर में बेजोड़ हो ?'
'मैं तो बेजोड़ ही बनवाऊँगा।'
'इसका तुम्हें अख्तियार हैलेकिन मेरे रुपये में से तुम्हें कुछ न मिल सकेगा। मेरी जरूरतें देखो। तुम्हारे घर में काफी जायदाद है। तुम्हारे सिर कोई बोझ नहींमेरे सिर तो सारी गृहस्थी का बोझ है। दो बहनों का विवाह
हैदो भाइयों की शिक्षा हैनया मकान बनवाना है। मैंने तो निश्चय कर लिया है कि सब रुपये सीधे बैंक में जमा कर दूंगा। उनके सूद से काम चलाऊँगा। कुछ ऐसी शर्तें लगा दूंगाकि मेरे बाद भी कोई इस रकम में हाथ न लगा सके।'
विक्रम ने सहानुभूति के भाव से कहा, हाँऐसी दशा में तुमसे कुछ माँगना अन्याय है। खैरमैं ही तकलीफ उठा लूँगालेकिन बैंक के सूद की दर तो बहुत गिर गयी है। हमने कई बैंकों में सूद की दर देखीअस्थायी कोष की भीसेविंग बैंक की भी। बेशक दर बहुत कम थी। दो-ढाई रुपये सैकड़े ब्याज पर जमा करना व्यर्थ है। क्यों न लेन-देन का कारोबार शुरू किया जाय विक्रम भी अभी यात्रा पर न जायगा। दोनों के साझे में कोठी चलेगीजब कुछ धन जमा हो जायगातब वह यात्रा करेगा। लेन-देन में सूद भी अच्छा मिलेगा और अपना रोब-दाब भी रहेगा। हाँजब तक अच्छी जमानत न होकिसी को रुपया न देना चाहिएचाहे असामी कितना ही मातबर क्यों न हो। और जमानत पर रुपये दे ही क्यों जायदाद रेहन लिखाकर रुपये देंगे। फिर तो
कोई खटका न रहेगा। यह मंजिल भी तय हुई।

अब यह प्रश्न उठा कि टिकट पर किसका नाम रहे। विक्रम ने अपना नाम रखने के लिए बड़ा आग्रह किया। अगर उसका नाम न रहातो वह टिकट ही न लेगा ! मैंने कोई उपाय न देखकर मंजूर कर लिया और बिना किसी लिखा-पढ़ी केजिससे आगे चलकर मुझे बड़ी परेशानी हुई ! एक-एक करके इन्तजार के दिन काटने लगे। भोर होते ही हमारी आँखें कैलेंडर पर जातीं। मेरा मकान विक्रम के मकान से मिला हुआ था। स्कूल जाने के पहले और स्कूल से आने के बाद हम दोनों साथ बैठकर अपने-अपने मंसूबे बाँध करते और इस तरह सायँ-सायँ कि कोई सुन न ले। हम अपने टिकट खरीदने का रहस्य छिपाये रखना चाहते थे। यह रहस्य जब सत्य का रूप धारण कर लेगाउस वक्त लोगों को कितना विस्मय होगा ! उस दृश्य का नाटकीय आनन्द हम नहीं छोड़ना चाहते थे। एक दिन बातों-बातों में विवाह का जिक्र आ गया। विक्रम ने दार्शनिक गम्भीरता से कहा, भईशादी-वादी का जंजाल तो मैं नहीं पालना चाहता। व्यर्थ की चिंता और हाय-हाय। पत्नी की नाज बरदारी में ही बहुत-से रुपये उड़ जायँगे।
मैंने इसका विरोध किया हाँयह तो ठीक हैलेकिन जब तक जीवन के सुख-दु:ख का कोई साथी न होजीवन का आनन्द ही क्या मैं तो विवाहित जीवन से इतना विरक्त नहीं हूँ। हाँसाथी ऐसा चाहता हूँ जो अन्त तक साथ रहे और ऐसा साथी पत्नी के सिवा दूसरा नहीं हो सकता।

 
विक्रम जरूरत से ज्यादा तुनुकमिजाजी से बोला, ख़ैरअपना-अपना दृष्टिकोण है। आपको बीवी मुबारक और कुत्तों की तरह उसके पीछे-पीछे चलना तथा बच्चों को संसार की सबसे बड़ी विभूति और ईश्वर की सबसे बड़ी दया समझना मुबारक। बन्दा तो आजाद रहेगाअपने मजे से चाहा और जब चाहा उड़ गये और जब चाहा घर आ गये। यह नहीं कि हर वक्त एक चौकीदार आपके सिर पर सवार हो। जरा-सी देर हुई घर आने में और फौरन जवाब तलब हुआ क़हाँ थे अब तक आप कहीं बाहर निकले और फौरन सवाल हुआ क़हाँ जाते हो और जो कहीं दुर्भाग्य से पत्नीजी भी साथ हो गयींतब तो डूब मरने के सिवा आपके लिए कोई मार्ग ही नहीं रह जाता। न भैयामुझे आपसे जरा भी सहानुभूति नहीं। बच्चे को जरा-सा जुकाम हुआ और आप बेतहाशा दौड़े चले जा रहे हैं होमियोपैथिक डाक्टर के पास। जरा उम्र खिसकी और लौंडे मनाने लगे कि कब आप प्रस्थान करें और वह गुलछर्रे उड़ायें। मौका मिला तो आपको जहर खिला दिया और मशहूर किया कि आपको
कालरा हो गया था। मैं इस जंजाल में नहीं पड़ता। 
कुन्ती आ गयी। वह विक्रम की छोटी बहन थीकोई ग्यारह साल की। छठे में पढ़ती थी और बराबर फेल होती थी। बड़ी चिबिल्लीबड़ी शोख। इतने धमाके से द्वार खोला कि हम दोनों चौंककर उठ खड़े हुए।
विक्रम ने बिगड़कर कहा, तू बड़ी शैतान है कुन्तीकिसने तुझे बुलाया यहाँ ?’
कुन्ती ने खुफिया पुलिस की तरह कमरे में नजर दौड़ाकर कहा, तुम लोग हरदम यहाँ किवाड़ बन्द किये बैठे क्या बातें किया करते हो जब देखो,यहीं बैठे हो। न कहीं घूमने जाते होन तमाशा देखनेकोई जादू-मन्तर जगाते होंगे !
विक्रम ने उसकी गरदन पकड़कर हिलाते हुए कहा, हाँ एक मन्तर जगा रहे हैंजिसमें तुझे ऐसा दूल्हा मिलेजो रोज गिनकर पाँच हजार हण्टर जमाये सड़ासड़।
कुन्ती उसकी पीठ पर बैठकर बोली, मैं ऐसे दूल्हे से ब्याह करूँगीजो मेरे सामने खड़ा पूँछ हिलाता रहेगा। मैं मिठाई के दोने फेंक दूंगी और वह चाटेगा। जरा भी चीं-चपड़ करेगातो कान गर्म कर दूंगी। अम्माँ को लॉटरी
के रुपये मिलेंगेतो पचास हजार मुझे दे दें। बसचैन करूँगी। मैं दोनों वक्त ठाकुरजी से अम्माँ के लिए प्रार्थना करती हूँ। अम्माँ कहती हैंकुँवारी लड़कियों की दुआ कभी निष्फल नहीं होती। मेरा मन तो कहता हैअम्माँ को जरूर रुपये मिलेंगे।
मुझे याद आयाएक बार मैं अपने ननिहाल देहात में गया थातो सूखा पड़ा हुआ था। भादों का महीना आ गया थामगर पानी की बूँद नहीं। सब लोगों ने चन्दा करके गाँव की सब कुँवारी लड़कियों की दावत की थी।
और उसके तीसरे ही दिन मूसलाधार वर्षा हुई थी। अवश्य ही कुँवारियों की दुआ में असर होता है। मैंने विक्रम को अर्थपूर्ण आँखों से देखाविक्रम ने मुझे। आँखों ही में हमने सलाह कर ली और निश्चय भी कर लिया।

विक्रम ने कुन्ती से कहा, अच्छातुझसे एक बात कहें किसी से कहोगी तो नहीं नहींतू तो बड़ी अच्छी लड़की हैकिसी से न कहेगी। मैं अबकी तुझे खूब पढ़ाऊँगा और पास करा दूंगा। बात यह है कि हम दोनों ने भी लॉटरी का टिकट लिया है। हम लोगों के लिए भी ईश्वर से प्रार्थना किया कर। अगर हमें रुपये मिले,
तो तेरे लिए अच्छे-अच्छे गहने बनवा देंगे। सच !’ कुन्ती को विश्वास न आया। हमने कसमें खायीं। वह नखरे करने लगी। जब हमने उसे सिर से पाँव तक सोने और हीरे से मढ़ देने की प्रतिज्ञा कीतब वह हमारे लिए दुआ करने पर राजी हुई।  लेकिन उसके पेट में मनों मिठाई पच सकती थीवह जरा-सी बात
न पची। सीधे अन्दर भागी और एक क्षण में सारे घर में वह खबर फैल गयी। अब जिसे देखिएविक्रम को डाँट रहा हैअम्माँ भीचचा भीपिता भी क़ेवल विक्रम की शुभ-कामना से या और किसी भाव से,
कौन जाने बैठे-बैठे तुम्हें हिमाकत ही सूझती है। रुपये लेकर पानी में फेंक दिये। घर में इतने आदमियों ने तो टिकट लिया ही थातुम्हें लेने की क्या जरूरत थी क्या तुम्हें उसमें से कुछ न मिलते और तुम भी मास्टर साहबबिलकुल घोंघा हो। लड़के को अच्छी बातें क्या सिखाओगेउसे और चौपट किये डालते हो।
विक्रम तो लाड़ला बेटा था। उसे और क्या कहते। कहीं रूठकर एक-दो जून खाना न खायेतो आफत ही आ जाय। मुझ पर सारा गुस्सा उतरा। इसकी सोहबत में लड़का बिगड़ा जाता है।

'पर उपदेश कुशल बहुतेरेवाली कहावत मेरी आँखों के सामने थी। मुझे अपने बचपन की एक घटना याद आयी। होली का दिन था। शराब की एक बोतल मँगवायी गयी थी। मेरे मामूँ साहब उन दिनों आये हुए थे।
मैंने चुपके से कोठरी में जाकर गिलास में एक घूँट शराब डाली और पी गया। अभी गला जल ही रहा था और आँखें लाल ही थींकि मामूँ साहब कोठरी में आ गये और मुझे मानो सेंधा में गिरफ्तार कर लिया और इतना बिगड़े इतना बिगड़े कि मेरा कलेजा सूखकर छुहारा हो गया। अम्माँ ने भी डाँटापिताजी ने भी डाँटामुझे आँसुओं से उनकी क्रोधग्नि शान्त करनी पड़ीऔर दोपहर ही को मामूँ साहब नशे में पागल होकर गाने लगेफिर रोये,फिर अम्माँ को गालियाँ दींदादा के मना करने पर भी मारने दौड़े और आखिर में कै करके जमीन पर बेसुध पड़े नजर आये।

विक्रम के पिता बड़े ठाकुर साहब और ताऊ छोटे ठाकुर साहब दोनों जड़वादी थेपूजा-पाठ की हँसी उड़ाने वालेपूरे नास्तिकमगर अब दोनों बड़े निष्ठावान् और ईश्वर भक्त हो गये थे। बड़े ठाकुर साहब प्रात:काल गंगा-स्नान करने जाते और मन्दिरों के चक्कर लगाते हुए दोपहर को सारी देह में चन्दन लपेटे घर लौटते। छोटे ठाकुर साहब घर पर ही गर्म पानी से स्नान करते और गठिया से ग्रस्त होने पर भी राम-नाम लिखना शुरू कर देते। धूप निकल आने पर पार्क की ओर निकल जाते और चींटियों को आटा खिलाते। शाम होते ही दोनों भाई अपने ठाकुरद्वारे में जा बैठते और आधी रात तक भागवत की कथा तन्मय होकर सुनते। विक्रम के बड़े भाई प्रकाश को साधु-महात्माओं पर अधिक विश्वास था। वह मठों और साधुओं के अखाड़ों तथा कुटियों की खाक छानते और माताजी को तो भोर से आधी रात तक स्नानपूजा और व्रत के सिवा दूसरा काम ही न था। इस उम्र में भी उन्हें सिंगार का शौक थापर आजकल पूरी तपस्विनी बनी हुई थीं। लोग नाहक लालसा को बुरा कहते हैं। मैं तो समझता हूँहममें जो यह भक्ति-निष्ठा और धर्म-प्रेम हैवह केवल हमारी लालसाहमारी हवस के कारण। हमारा धर्म हमारे स्वार्थ के बल पर टिका हुआ है। हवस मनुष्य के मन और बुद्धि का इतना संस्कार कर सकती हैयह मेरे लिए बिलकुल नया अनुभव था। हम दोनों भी ज्योतिषियों और पण्डितों से प्रश्न करके अपने को कभी दुखी कर लिया करते थे।

ज्यों-ज्यों लॉटरी का दिवस समीप आता जाता थाहमारे चित्त की शान्ति उड़ती जाती थी। हमेशा उसी ओर मन टँगा रहता। मुझे आप-ही-आप अकारण सन्देह होने लगा कि कहीं विक्रम मुझे हिस्सा देने से इन्कार कर देतो मैं क्या करूँगा। साफ इन्कार कर जाय कि तुमने टिकट में साझा किया ही नहीं। न कोई तहरीर हैन कोई दूसरा सबूत। सबकुछ विक्रम की नीयत पर है। उसकी नीयत जरा भी डावाँडोल हुई कि काम-तमाम। कहीं फरियाद नहीं कर सकतामुँह तक नहीं खोल सकता। अब अगर कुछ कहूँ भी तो कुछ लाभ नहीं। अगर उसकी नीयत में फितूर आ गया है तब तो वह अभी से इन्कार कर देगाअगर नहीं आया हैतो इस सन्देह से उसे मर्मान्तक वेदना होगी। आदमी ऐसा तो नहीं हैमगर भाईदौलत पाकर ईमान सलामत रखना कठिन है। अभी तो रुपये नहीं मिले हैं। इस वक्त ईमानदार बनने में क्या खर्च होता है परीक्षा का समय तो तब आयेगाजब दस लाख रुपये हाथ में होंगे। मैंने अपने अन्त:करण को टटोला अगर टिकट मेरे नाम का होता और मुझे
दस लाख मिल जातेतो क्या मैं आधे रुपये बिना कान-पूँछ हिलाये विक्रम के हवाले कर देता कौन कह सकता हैमगर अधिक सम्भव यही था कि मैं हीले-हवाले करताकहता तुमने मुझे पाँच रुपये उधर दिये थे। उसके  दस ले लोसौ ले लो और क्या करोगेमगर नहींमुझसे इतनी बद-नीयती न होती।

दूसरे दिन हम दोनों अखबार देख रहे थे कि सहसा विक्रम ने कहा, क़हीं हमारा टिकट निकल आयेतो मुझे अफसोस होगा कि नाहक तुमसे साझा किया ! वह सरल भाव से मुस्करायामगर यह थी उसके आत्मा की झलक जिसे वह विनोद की आड़ में छिपाना चाहता था। मैंने चौंककर कहा, सच ! लेकिन इसी तरह मुझे भी तो अफसोस हो सकता है ?’
'लेकिन टिकट तो मेरे नाम का है ?'
'इससे क्या।'
'अच्छामान लोमैं तुम्हारे साझे से इन्कार कर जाऊँ ?'
मेरा खून सर्द हो गया। आँखों के सामने अँधेरा छा गया।
'मैं तुम्हें इतना बदनीयत नहीं समझता था।'
'मगर है बहुत संभव। पाँच लाख। सोचो ! दिमाग चकरा जाता है !'
'तो भाईअभी से कुशल हैलिखा-पढ़ी कर लो ! यह संशय रहे ही क्यों ?'
विक्रम ने हँसकर कहा, तुम बड़े शक्की हो यार ! मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। भलाऐसा कहीं हो सकता है पाँच लाख क्यापाँच करोड़ भी हों,तब भी ईश्वर चाहेगातो नीयत में खलल न आने दूंगा।
 किन्तु मुझे उसके इस आश्वासन पर बिलकुल विश्वास न आया। मन में एक संशय बैठ गया।
मैंने कहा, यह तो मैं जानता हूँतुम्हारी नीयत कभी विचलित नहीं हो सकतीलेकिन लिखा-पढ़ी कर लेने में क्या हरज है ?’
'फजूल है।'
'फजूल ही सही।'
'तो पक्के कागज पर लिखना पड़ेगा। दस लाख की कोर्ट-फीस ही साढ़े सात हजार हो जायगी। किस भ्रम में हैं आप ?'
मैंने सोचा, ‘बला से सादी लिखा-पढ़ी के बल पर कोई कानूनी कार्रवाई न कर सकूँगा। पर इन्हें लज्जित करने काइन्हें जलील करने काइन्हें सबके सामने बेईमान सिद्ध करने का अवसर तो मेरे हाथ आयेगा और दुनिया में बदनामी का भय न होतो आदमी न जाने क्या करे। अपमान का भय कानून के भय से किसी तरह कम क्रियाशील नहीं होता। बोला, मुझे सादे कागज पर ही विश्वास आ जायगा।
विक्रम ने लापरवाही से कहा, ज़िस कागज का कोई कानूनी महत्त्व नहींउसे लिखकर क्या समय नष्ट करें ?’

मुझे निश्चय हो गया कि विक्रम की नीयत में अभी से फितूर आ गया। नहीं तो सादा कागज लिखने में क्या बाधा हो सकती है बिगड़कर कहा,तुम्हारी नीयत तो अभी से खराब हो गयी। उसने निर्लज्जता से कहा, तो क्या तुम साबित करना चाहते हो कि ऐसी दशा में तुम्हारी नीयत न बदलती?’
'मेरी नीयत इतनी कमजोर नहीं है ?'
'रहने भी दो। बड़ी नीयतवाले ! अच्छे-अच्छे को देखा है !'
'तुम्हें इसी वक्त लेखाबद्ध होना पड़ेगा। मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं रहा।'
'अगर तुम्हें मेरे ऊपर विश्वास नहीं हैतो मैं भी नहीं लिखता।'
'तो क्या तुम समझते होतुम मेरे रुपये हजम कर जाओगे ?'
'किसके रुपये और कैसे रुपये ?'
'मैं कहे देता हूँ विक्रमहमारी दोस्ती का ही अन्त न हो जायगाबल्कि इससे कहीं भयंकर परिणाम होगा।'
हिंसा की एक ज्वाला-सी मेरे अन्दर दहक उठी। सहसा दीवानखाने में झड़प की आवाज सुनकर मेरा ध्यान उधर चला गया। यहाँ दोनों ठाकुर बैठा करते थे। उनमें ऐसी मैत्री थीजो आदर्श भाइयों में हो सकती है। राम और लक्ष्मण में भी इतनी ही रही होगी। झड़प की तो बात ही क्यामैंने उनमें कभी विवाद होते भी न सुना था। बड़े ठाकुर जो कह देंवह छोटे ठाकुर के लिए कानून था और छोटे ठाकुर की इच्छा देखकर ही बड़े ठाकुर कोई बात कहते थे। हम दोनों को आश्चर्य हुआ दीवानखाने के द्वार पर जाकर खड़े हो गये। दोनों भाई अपनी-अपनी कुर्सियों से उठकर खड़े हो गये थेएक-एक कदम आगे भी बढ़ आये थेआँखें लालमुख विकृतत्योरियाँ चढ़ी हुईंमुट्ठियाँ बँधी हुईं। मालूम होता थाबस हाथापाई हुई ही चाहती है। छोटे ठाकुर ने हमें देखकर पीछे हटते हुए कहा, सम्मिलित परिवार में जो कुछ भी और कहीं से भी और किसी के नाम भी आयेवह सबका हैबराबर।
बड़े ठाकुर ने विक्रम को देखकर एक कदम और आगे बढ़ाया –‘हरगिज  नहींअगर मैं कोई जुर्म करूँतो मैं पकड़ा जाऊँगासम्मिलित परिवार नहीं। मुझे सजा मिलेगीसम्मिलित परिवार को नहीं। यह वैयक्तिक प्रश्न है।
'इसका फैसला अदालत से होगा।'
'शौक से अदालत जाइए। अगर मेरे लड़केमेरी बीवी या मेरे नाम लॉटरी निकलीतो आपका उससे कोई सम्बन्ध न होगाउसी तरह जैसे आपके नाम लॉटरी निकलेतो मुझसेमेरी बीवी से या मेरे लड़के से उससे कोई सम्बन्ध न होगा।'
'अगर मैं जानता कि आपकी ऐसी नीयत हैतो मैं भी बीवी-बच्चों के नाम से टिकट ले सकता था।'
'यह आपकी गलती है।'
'इसीलिए कि मुझे विश्वास थाआप भाई हैं।'
'यह जुआ हैआपको समझ लेना चाहिए था। जुए की हार-जीत का खानदान पर कोई असर नहीं पड़ सकता। अगर आप कल को दस-पाँच हजार रेस में हार आयेंतो खानदान उसका जिम्मेदार न होगा।'
'मगर भाई का हक दबाकर आप सुखी नहीं रह सकते।'
'आप न ब्रह्मा हैंन ईश्वर और न कोई महात्मा।'
विक्रम की माता ने सुना कि दोनों भाइयों में ठनी हुई है और मल्लयुद्ध हुआ चाहता हैतो दौड़ी हुई बाहर आयीं और दोनों को समझाने लगीं।
छोटे ठाकुर ने बिगड़कर कहा, आप मुझे क्या समझती हैंउन्हें समझाइएजो चार-चार टिकट लिये हुए बैठे हैं। मेरे पास क्या हैएक टिकट। उसका क्या भरोसा। मेरी अपेक्षा जिन्हें रुपये मिलने का चौगुना चांस हैउनकी नीयत बिगड़ जायतो लज्जा और दु:ख की बात है।
ठकुराइन ने देवर को दिलासा देते हुए कहा, अच्छामेरे रुपये में से आधे तुम्हारे। अब तो खुश हो।
बड़े ठाकुर ने बीवी की जबान पकड़ी --‘क्यों आधे ले लेंगे मैं एक धोला भी न दूंगा। हम मुरौवत और सह्रदयता से काम लेंफिर भी उन्हें पाँचवें हिस्से से ज्यादा किसी तरह न मिलेगा। आधे का दावा किस नियम से हो सकता है न बौद्धिकन धार्मिकन नैतिक। छोटे ठाकुर ने खिसियाकर कहा, सारी दुनिया का कानून आप ही तो जानते हैं।
'जानते ही हैंतीस साल तक वकालत नहीं की है ?'
'यह वकालत निकल जायगीजब सामने कलकत्ते का बैरिस्टर खड़ा कर दूंगा।'
'बैरिस्टर की ऐसी-तैसीचाहे वह कलकत्ते का हो या लन्दन का !'
'मैं आधा लूँगाउसी तरह जैसे घर की जायदाद में मेरा आधा है।'

इतने में विक्रम के बड़े भाई साहब सिर और हाथ में पट्टी बाँधेलॅगड़ाते हुएकपड़ों पर ताजा खून के दाग लगायेप्रसन्न-मुख आकर एक आरामकुर्सी पर गिर पड़े। बड़े ठाकुर ने घबड़ाकर पूछा, यह तुम्हारी क्या हालत है जी ऐंयह चोट कैसे लगी किसी से मार-पीट तो नहीं हो गयी ?’
प्रकाश ने कुर्सी पर लेटकर एक बार कराहाफिर मुस्कराकर बोले, ज़ीकोई बात नहींऐसी कुछ बहुत चोट नहीं लगी।
'कैसे कहते हो कि चोट नहीं लगी सारा हाथ और सिर सूज गया है। कपड़े खून से तर। यह मुआमला क्या है कोई मोटर दुर्घटना तो नहीं हो गयी?'
'बहुत मामूली चोट है साहबदो-चार दिन में अच्छी हो जायगी। घबराने की कोई बात नहीं।'
प्रकाश के मुख पर आशापूर्णशान्त मुस्कान थी। क्रोधलज्जा या प्रतिशोध की भावना का नाम भी न था।
बड़े ठाकुर ने और व्यग्र होकर पूछा, लेकिन हुआ क्यायह क्यों नहीं बतलाते किसी से मार-पीट हुई हो तो थाने में रपट करवा दूं।
प्रकाश ने हलके मन से कहा, मार-पीट किसी से नहीं हुई साहब। बात यह है कि मैं जरा झक्कड़ बाबा के पास चला गया था। आप तो जानते हैंवह आदमियों की सूरत से भागते हैं और पत्थर लेकर मारने दौड़ते हैं।
जो डरकर भागावह गया। जो पत्थर की चोटें खाकर भी उनके पीछे लगा रहावह पारस हो गया। वह यही परीक्षा लेते हैं। आज मैं वहाँ पहुँचातो कोई पचास आदमी जमा थेकोई मिठाई लियेकोई बहुमूल्य भेंट लियेकोई कपड़ों के थान लिये। झक्कड़ बाबा ध्यानावस्था में बैठे हुए थे। एकाएक उन्होंने आँखें खोलीं और यह जन-समूह देखातो कई पत्थर चुनकर उनके पीछे दौड़े। फिर क्या थाभगदड़ मच गयी। लोग गिरते-पड़ते भागे। हुर्र हो गये। एक भी न टिका। अकेला मैं घंटेघर की तरह वहीं डटा रहा। बस उन्होंने पत्थर चला ही तो दिया। पहला निशाना सिर में लगा। उनका निशाना अचूक पड़ता है। खोपड़ी भन्ना गयीखून की धारा बह चलीलेकिन मैं हिला नहीं। फिर बाबाजी ने दूसरा पत्थर फेंका। वह हाथ में लगा। मैं गिर पड़ा और
बेहोश हो गया। जब होश आयातो वहाँ सन्नाटा था। बाबाजी भी गायब हो गये थे। अन्तर्धान हो जाया करते हैं। किसे पुकारूँकिससे सवारी लाने को कहूँ मारे दर्द के हाथ फटा पड़ता था और सिर से अभी तक खून जारी था। किसी तरह उठा और सीधा डाक्टर के पास गया। उन्होंने देखकर कहा,हड्डी टूट गयी है और पट्टी बाँध दीगर्म पानी से सेंकने को कहा, है। शाम को फिर आयेंगेमगर चोट लगी तो लगीअब लाटरी मेरे नाम आयी धरी है। यह निश्चय है। ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि झक्कड़ बाबा की मार खाकर कोई नामुराद रह गया हो। मैं तो सबसे पहले बाबा की कुटी बनवा दूंगा।

बड़े ठाकुर साहब के मुख पर संतोष की झलक दिखायी दी। फौरन पलंग बिछ गया। प्रकाश उस पर लेटे। ठकुराइन पंखा झलने लगींउनका भी मुख प्रसन्न था। इतनी चोट खाकर दस लाख पा जाना कोई बुरा सौदा
न था। छोटे ठाकुर साहब के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। ज्यों ही बड़े ठाकुर भोजन करने गये और ठकुराइन भी प्रकाश के लिए भोजन का प्रबन्ध करने गयींत्यों ही छोटे ठाकुर ने प्रकाश से पूछा, क्या बहुत जोर से पत्थर मारते हैं ?’
जोर से तो क्या मारते होंगे !
प्रकाश ने उनका आशय समझकर कहा, अरे साहबपत्थर नहीं मारतेबमगोले मारते हैं। देव-सा तो डील-डौल है और बलवान् इतने हैं कि एक घूँसे में शेरों का काम तमाम कर देते हैं। कोई ऐसा-वैसा आदमी होतो एक
ही पत्थर में टें हो जाय। कितने ही तो मर गयेमगर आज तक झक्कड़ बाबा पर मुकदमा नहीं चला। और दो-चार पत्थर मारकर ही नहीं रह जाते,जब तक आप गिर न पड़ें और बेहोश न हो जायँवह मारते ही जायँगेमगर रहस्य यही है कि आप जितनी ज्यादा चोटें खायेंगेउतने ही अपने उद्देश्य के निकट पहुँचेंगे। ..
प्रकाश ने ऐसा रोएँ खड़े कर देने वाला चित्र खींचा कि छोटे ठाकुर साहब थर्रा उठे। पत्थर खाने की हिम्मत न पड़ी।

आखिर भाग्य के निपटारे का दिन आया ज़ुलाई की बीसवीं तारीख कत्ल की रात ! हम प्रात:काल उठेतो जैसे एक नशा चढ़ा हुआ थाआशा और भय के द्वन्द्व का। दोनों ठाकुरों ने घड़ी रात रहे गंगा-स्नान किया था और
मन्दिर में बैठे पूजन कर रहे थे। आज मेरे मन में श्रद्धा जागी। मन्दिर में जाकर मन-ही-मन ठाकुरजी की स्तुति करने लगा अनाथों के नाथतुम्हारी कृपादृष्टि क्या हमारे ऊपर न होगी तुम्हें क्या मालूम नहींहमसे ज्यादा तुम्हारी दया कौन डिज़र्व ;कमेमतअमद्ध करता है विक्रम सूट-बूट पहने मन्दिर के द्वार पर आयामुझे इशारे से बुलाकर इतना कहा, मैं डाकखाने जाता हूँ और हवा हो गया। जरा देर में प्रकाश मिठाई के थाल लिए हुए घर में से निकले और मन्दिर के द्वार पर खड़े होकर कंगालों को बाँटने लगेजिनकी एक भीड़ जमा हो गयी थी। और दोनों ठाकुर भगवान् के चरणों में लौ लगाये हुए थेसिर झुकायेआँखें बन्द किये हुएअनुराग में डूबे हुए। बड़े ठाकुर ने सिर उठाकर पुजारी की ओर देखा और बोले, भगवान् तो बड़े भक्त-वत्सल हैंक्यों पुजारीजी ?
पुजारीजी ने समर्थन किया, हाँ सरकारभक्तों की रक्षा के लिए तो भगवान् क्षीरसागर से दौड़े और गज को ग्राह के मुँह से बचाया।
एक क्षण के बाद छोटे ठाकुर साहब ने सिर उठाया और पुजारीजी से बोले क्यों, पुजारीजीभगवान् तो सर्वशक्तिमान् हैंअन्तर्यामीसबके दिल का हाल जानते हैं।
पुजारी ने समर्थन किया—‘हाँ सरकारअन्तर्यामी न होते तो सबके मन की बात कैसे जान जाते शबरी का प्रेम देखकर स्वयं उसकी मनोकामना पूरी की।
पूजन समाप्त हुआ। आरती हुई। दोनों भाइयों ने आज ऊँचे स्वर से आरती गायी और बड़े ठाकुर ने दो रुपये थाल में डाले। छोटे ठाकुर ने चार रुपये डाले। बड़े ठाकुर ने एक बार कोप-दृष्टि से देखा और मुँह फेर लिया।
सहसा बड़े ठाकुर ने पुजारी से पूछा,  ‘तुम्हारा मन क्या कहता है पुजारीजी ?’
पुजारी बोला, सरकार की फते है।
छोटे ठाकुर ने पूछा, और मेरी ?’
पुजारी ने उसी मुस्तैदी से कहा, आपकी भी फते है।
बड़े ठाकुर श्रद्धा से डूबे भजन गाते हुए मन्दिर से निकले -- 'प्रभुजीमैं तो आयो सरन तिहारेहाँ प्रभुजी !'
एक मिनट में छोटे ठाकुर साहब भी मन्दिर से गाते हुए निकले -- 'अब पत राखो मोरे दयानिधन तोरी गति लखि ना परे !'
मैं भी पीछे निकला और जाकर मिठाई बाँटने में प्रकाश बाबू की मदद करना चाहाउन्होंने थाल हटाकर कहा, आप रहने दीजिएमैं अभी बाँटे डालता हूँ। अब रह ही कितनी गयी है मैं खिसियाकर डाकखाने की तरफ चला कि विक्रम मुस्कराता हुआ साइकिल पर आ पहुँचा। उसे देखते ही सभी जैसे पागल हो गये। दोनों ठाकुर
सामने ही खड़े थे। दोनों बाज की तरह झपटे। प्रकाश के थाल में थोड़ी-सी मिठाई बच रही थी। उसने थाल जमीन पर पटका और दौड़ा। और मैंने तो उस उन्माद में विक्रम को गोद में उठा लियामगर कोई उससे कुछ पूछता नहींसभी जय-जयकार की हाँक लगा रहे हैं।
बड़े ठाकुर ने आकाश की ओर देखा, बोलो राजा रामचन्द्र की जय !
छोटे ठाकुर ने छलाँग मारी, बोलो हनुमानजी की जय !
प्रकाश तालियाँ बजाता हुआ चीखा, दुहाई झक्कड़ बाबा की !

विक्रम ने और जोर से कहकहा, मारा और फिर अलग खड़ा होकर बोला,’जिसका नाम आया हैउससे एक लाख लूँगा ! बोलोहै मंजूर ?’
बड़े ठाकुर ने उसका हाथ पकड़ा-- पहले बता तो !
'ना ! यों नहीं बताता।'
'छोटे ठाकुर बिगड़े ... महज बताने के लिए एक लाख शाबाश !
प्रकाश ने भी त्योरी चढ़ायी, क्या डाकखाना हमने देखा नहीं है ?’
'अच्छातो अपना-अपना नाम सुनने के लिए तैयार हो जाओ।'
सभी लोग फौजी-अटेंशन की दशा में निश्चल खड़े हो गये।
'होश-हवाश ठीक रखना !'
सभी पूर्ण सचेत हो गये।
'अच्छातो सुनिए कान खोलकर इस शहर का सफाया है। इस शहर
का ही नहींसम्पूर्ण भारत का सफाया है। अमेरिका के एक हब्शी का नाम
आ गया।'
बड़े ठाकुर झल्लाये, झूठ-झूठबिलकुल झूठ !
छोटे ठाकुर ने पैंतरा बदला क़भी नहीं। तीन महीने की तपस्या यों ही रही वाह ?’
प्रकाश ने छाती ठोंककर कहा, यहाँ सिर मुड़वाये और हाथ तुड़वाये बैठे हैंदिल्लगी है !

इतने में और पचासों आदमी उधर से रोनी सूरत लिये निकले। ये बेचारे भी डाकखाने से अपनी किस्मत को रोते चले आ रहे थे। मार ले गया,अमेरिका का हब्शी ! अभागा ! पिशाच ! दुष्ट ! अब कैसे किसी को विश्वास न आता बड़े ठाकुर झल्लाये हुए मन्दिर में गये और पुजारी को डिसमिस कर दिया इसीलिए तुम्हें इतने दिनों से पाल रखा है। हराम का माल खाते हो और चैन करते हो। छोटे ठाकुर साहब की तो जैसे कमर टूट गयी। दो-तीन बार सिर पीटा और वहीं बैठ गयेमगर प्रकाश के क्रोध का पारावार न था। उसने अपना
मोटा सोटा लिया और झक्कड़ बाबा की मरम्मत करने चला। माताजी ने केवल इतना कहा, सभी ने बेईमानी की है। मैं कभी मानने की नहीं। हमारे देवता क्या करें किसी के हाथ से थोड़े ही छीन लायेंगे ?’
रात को किसी ने खाना नहीं खाया। मैं भी उदास बैठा हुआ था कि विक्रम आकर बोला, चलोहोटल से कुछ खा आयें। घर में तो चूल्हा नहीं जला।
मैंने पूछा, तुम डाकखाने से आये, ‘तो बहुत प्रसन्न क्यों थे।
उसने कहा, ज़ब मैंने डाकखाने के सामने हजारों की भीड़ देखीतो मुझे अपने लोगों के गधेपन पर हँसी आयी। एक शहर में जब इतने आदमी हैंतो सारे हिन्दुस्तान में इसके हजार गुने से कम न होंगे। और दुनिया में
तो लाख गुने से भी ज्यादा हो जायँगे। मैंने आशा का जो एक पर्वत-सा खड़ा कर रखा थावह जैसे एकबारगी इतना छोटा हुआ कि राई बन गयाऔर मुझे हँसी आयी। जैसे कोई दानी पुरुष छटाँक-भर अन्न हाथ में लेकर एक लाख आदमियों को नेवता दे बैठे और यहाँ हमारे घर का एक-एक आदमी समझ रहा है कि ...
मैं भी हँसा हाँबात तो यथार्थ में यही है और हम दोनों लिखा-पढ़ी के लिए लड़े मरते थेमगर सच बतानातुम्हारी नीयत खराब हुई थी कि नहीं ?’विक्रम मुस्कराकर बोला, अब क्या करोगे पूछकर परदा ढँका रहने दो।'




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